As a recent move of Save Sharmila Solidarity Campaign (SSSC), a nationwide protest against the neglect and suppression of Irom Sharmila, is observing 12 Article series to reflect 12 years of suppression of Irom Sharmila's fast.
In this series one article per day will be published on its website and will be dedicated to one year fast of Irom.
This will conclude on 5th November, the day when Irom Sharmila will be unfortunately completing her 12 years of stuggle.
Here's an article in Hindi:
इरोम शर्मिला : सेना नहीं जनतंत्र चाहिए
वह लोकतंत्र की तलाश में बारह सालों से भूखी प्यासी कैद में है। उसेसेना नहीं लोकतंत्र चाहिए। दमन नहीं सम्मान चाहिए। हमने लोकतंत्र कीतलाश में जान कुर्बान करने वाले नहीं देखे । लोकतंत्र के जुनूनी नहीं देखे।क्रांति ,राष्ट्रवाद और राष्ट्र से अलग स्वतंत्र देश की मांग के लिएजोखिम उठाने वाले सुने हैं।लेकिन लोकतंत्र और मनुष्यों के अधिकारों केलिए जान की कुर्बानी देने वाले नहीं सुने।
हमने ऐसी औरतें देखीहैं जो सुखी संसार खोजती हैं।गहने खोजती हैं। मकान खोजती हैं। अच्छा वरखोजती हैं। कॉस्मेटिक्स खोजती हैं। सजने संवरने में अनंत समय खर्च करतीहैं। आत्ममुग्ध नायिका की तरह स्वयं के सम्मोहन में कैद रहती हें।लेकिन एक ऐसी औरत भी है जो न सजती है ,न संवरती है ,उसका एकमात्रसाज-श्रृंगार है लोकतंत्र।
अगर कोई पूछे औरत को क्या चाहिएमैं कहूँगा लोकतंत्र । आदिवासी को क्या चाहिए ? लोकतंत्र। गरीबों कोक्या चाहिए ?लोकतंत्र । देश में लोकतंत्र है या नहीं यह इस बात से तयहोगा कि आदिवासियों ,औरतों और अतिगरीबों के जीवन में लोकतंत्र वहुँचाहै कि नहीं। इनके जीवन में लोकतंत्र का वातावरण बना है या नहीं। लोकतंत्रकी पहचान का मानक वोट नहीं है। चुनी हुई सरकार नहीं है। लोकतंत्र का अर्थहै आदिवासी ,औरत और अल्पसंख्यकों के लिए लोकतंत्र की गारंटी।लोकतांत्रिक वातावरण की सृष्टि। मानवाधिकारों की अबाधित गारंटी। इसपैमाने पर केन्द्र सरकार विगत साठ सालों में बुरी तरह विफल रही है।
आदिवासी,औरत और अल्पसंख्यक हमारे समाज की धुरी हैं। बहुसंख्यकआबादी इन्हीं तीन समूहों में निवास करती है और इनमें लोकतंत्र के दर्शनदूर-दूर तक नहीं होते। इन तीनों समूहों के जीवन में लोकतंत्र औरमानवाधिकारों के अभाव और हनन को आए दिन अपनी आंखों के सामने देखते हैं औरचुप रहते हैं।
आप शहर में रहते हैं या गांवों में ,गरीब हैं याअमीर हैं,महानगर में रहते हैं या आदिवासी जंगलों में। कुछ देर के लिएविचार कीजिए क्या हम अपने समाज में आदिवासी, औरत और अल्पसंख्यकों कोदैनन्दिन जीवन में लोकतांत्रिक ढंग से जीने देते हैं ? क्या इन समूहोंको इनकी शर्तों पर जीने देते हैं। जी नहीं। इसके विपरीत इनके लोकतांत्रिकहकों का हनन करते रहते हैं। हम अभी भी अंदर से अलोकतांत्रिक बने हुए हैं।
हमारेदेश में लोकतंत्र का प्रहसन चल रहा है। इसमें हम सब मजा लेरहे हैं। दर्शक की तरह तालियां बजा रहे हैं। लोकतंत्र हमारे लिए देखने कीचीज है। हम इसमें हिस्सा नहीं लेते सिर्फ दर्शक की तरह देखते हैं। जयहो जय हो करते हैं।
आदिवासी,औरत और अल्पसंख्यकों के प्रतीक याआइकॉन के रूप में हमारे बीच में एक औरत है जो लोकतंत्र के इस प्रहसन मेंताली बजाने को तैयार नहीं है। वह लोकतंत्र में हिस्सा लेना चाहती है। वहदर्शक बने रहना नहीं चाहती। उसके लिए मानवाधिकार कागजी चीजें नहीं हैं।वह एक लेखिका है उसने सैंकड़ों कविताएं लिखी हैं। उसे अपनी कविता केलिए लोकतंत्र की तलाश है। वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों के बिना जिंदानहीं रहना चाहती। इसके लिए वह दस साल से भूख हडताल पर है। वह शांतिपूर्णप्रतिवाद कर रही है।
उसने कभी हिंसा नहीं की। उसके खिलाफराज्य की संपत्ति नष्ट करने का भी आरोप नहीं है। वह केन्द्र सरकार केखिलाफ राजद्रोह में भी शामिल नहीं रही।उसके खिलाफ किसी भी किस्म केअपराध का मामला सरकार नहीं बना पायी है। इसके बावजूद वह मणिपुर में कैद है। वह लोकतंत्र की देवी है उसका नाम है इरोम चानू शर्मिला।
आज सेठीक दस साल पहले 2 नबम्बर 2000 को उसने भूख हडताल आरंभ की थी, उसकी मांगहै कि मणिपुर से '' आर्म्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट 1958'' को तुरंतहटाया जाए। इस कानून के बहाने इस इलाके में सेना को उत्पीड़न करने के अबाधअधिकार मिल गए हैं। इरोम का भारत के लोकतंत्र में गहरा विश्वास है औरवह चाहती है कि मणिपुर के नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए।इस इलाके के लोगों को मानवाधिकारों का उपभोग करने का मौका दिया जाए। इरोमदस साल से भूख हडताल पर है पुलिस के लोग उसे नलियों के जरिए जबर्दस्तीखाना -पानी देते रहे हैं।
इरोम को सेना ,सत्ता,यश,दौलत,पद,पुरस्कार नहीं चाहिए । वह शांति से रहना चाहती है।अपने ही लोगों की सुरक्षा के साए में रहना चाहती है। इरोम आज उत्तरपूर्वीराज्यों की ही नहीं बल्कि सारे देश के आदिवासियों,औरतों औरअल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के जंग की प्रतीक बन गयी है। वहमानवाधिकारों के लिए धीरे धीरे गल रही है। उसकी मांग है कि मणिपुर से ''सैन्यबल विशेषाधिकार कानून'' हटाया जाए। पुलिस उसे दस साल सेजबर्दस्ती खाने खिला रही है। उसने अपने हाथ से न तो खाना खाया है और एकबूंद पानी ही पीया है। आज वह भारत की सत्ता के खिलाफ प्रतिवाद प्रतीक बनगयी है।
उसने विशेष सैन्य कानून को 'नो' बोल दिया है। उसका 'नो' या 'नहीं' अनेकार्थी है। उसके 'नहीं' में विभ्रम नहीं है। अस्थिरतानहीं है। अतिरिक्त अर्थ अथवा अतिरंजना भी नहीं है। उसके 'नहीं' मेंमणिपुरी जनता के जानोमाल,सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा का भाव व्यक्तहुआ है। वह 'नो' के जरिए भारतीय सत्ता की विभेदकारी दृष्टि को सामनेला रही है।
उत्तर-पूर्व के आदिवासियों और पर्वतीय जातियों केप्रति केन्द्र सरकार की असफल और भेदभावपूर्ण राजनीति पर पर्दा डालने केलिए विशेष सेन्य कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्तर-पूर्व केराज्यों में यह कानून एक दशक से भी ज्यादा समय से लागू है। इरोम ने जब इसबर्बर कानून के प्रति 'नो' कहा । उसका 'नो' शौकिया नहीं है।स्वत:स्फूर्त्त नहीं है। बल्कि सुचिंतित है।इरोम ने जब 'नो' बोलाथा तो यह सिर्फ सैन्य कानून के प्रति इंकार नहीं था बल्कि भारत कीराजसत्ता का भी अस्वीकार था।
इरोम जब सैन्य कानून को 'नो' बोलरही थी तो वह भारतीय सत्ता के शोषक उत्पीडक शासन को भी 'नो' कह रही थी,वहउन तमाम कानूनों को भी 'नो' कह रही थी जो मणिपुरी जनता के मानवाधिकारोंका हनन करते हैं। वह उन तमाम जातियों और सामाजिक समूहों के प्रविलेज कोभी 'नो' कह रही है जो केन्द्र की नीतियों के कारण इन्हें मिले हैं। वहहमारे संविधान में निहित मानवाधिकार विरोधी कानूनों को भी 'नो' कहरही है। आज उसके 'नो' में एक नहीं अनेक 'नो' शामिल हैं। वह पूंजीवादीविकास की कल्याणकारी नीतियों को भी 'नो' कह रही है। उसका 'नो' मानवाधिकार से वंचित आदिवासियों की आवाज है।
इरोम का 'नो' एकस्त्री का 'नो' नहीं है। वह अपने 'नो' के जरिए बता रही है कि उत्तरपूर्व में सब कुछ सामान्य नहीं है। उसका 'नो' उत्तरपूर्व के आर्थिकविकास की पोल खोलता है।केन्द्र सरकार का उत्तर पूर्व के राज्यों कोलेकर जिस तरह का दमनात्मक और उपेक्षापूर्ण रवैयया रहा है उस सबको वह 'नो' कह रही है।
इरोम का 'नो' एक औरत का 'नो' है। औरत जब किसी बात पर 'नो' कहती है तो बागी कहलाती है। उसने सचमुच में मानवाधिकारों के लिएबगावत कर दी है। उसने औरत और आदिवासी जातियों के स्वाभिमान के लिएबगावत कर दी है उसकी बगावत खाली नहीं जाएगी। यह ऐसी बगावत है जिसनेकेन्द्र की नींद हराम कर दी है। यह ऐसी बगावत है जिसे सेना रोक नहीं पारही है,यह ऐसी बगावत है जिसमें जनता की बजाय सत्ता हिंसा पर उतर आयी है।
हमारे देश की तमाम प्रमुख राजनीतिक पार्टियां ,मध्यवर्ग -उच्चमध्यवर्ग और मीडिया कल्याणकारी राज्य के फल खाने में मशगूल हैं।उन्हें उत्तर पूर्व का संकट समझ में नहीं आता।उनकी इसमें कोईदिलचस्पी नहीं है।वे इरोम की भूख हडताल पर उद्वेलित नहीं होते।
बौद्धिकों का समाज परजीवियों और चंचल लोगों के रूप में इधर उधर के मसलोंपर मीडिया से लेकर सेमीनारों में तलवार भांजता रहता है। लेकिन उसेआदिवासियों के मसले,उपेक्षा और अपमान परेशान नहीं करते। आदिवासी यदिअपनी किसी समस्या पर समाधान के लिए राजनीतिक प्रतिक्रिया व्यक्तकरते हैं तो तुरंत हिंसा हिंसा का हाहाकार शुरू हो जाता है।
इरोमशर्मीला के 'नो' ने भारत के बहुसांस्कृतिकवाद की भी पोल खोल दी है। हमारीसत्ता प्रचार में बहुसांस्कृतिकवाद का जितना ही ढोल पीटे व्यवहार मेंउसने बहुसांस्कृतिक सहिष्णुता को न्यूनतम स्पेस तक नहीं दिया है।आज अधिकांश आदिवासी इलाके सेना के हवाले हैं अथवा साम्प्रदायिक औरपृथकतावादियों के कब्जे में हैं। इन राज्यों से लोकतांत्रिक ताकतेंएकसिरे से गायब कर दी गयी हैं अथवा हाशिए पर पहुँचा दी गयी हैं।इनराज्यों में लोकतंत्र और मानवाधकारों के अभाव में विभिन्न जनजातियोंके बीच में विद्वेष और टकराव चरर्मोत्कर्ष पर पहुँच गया है।
इरोमशर्मीला का प्रतिवाद किसी भी तरह पृथकतावादी नहीं है। उसकी कोई मांग भीपृथकतावादी नहीं है। इन इलाकों में विशेष सैन्य कानून और जनता केप्रतिनिधियों का शासन एक साथ चल रहा है। इन दोनों में गहरा अन्तर्विरोघहै। सेना के शासन और मानवाधिकारों के अभाव में लोकतंत्र का शासन मूलत:अधिनायकवादी तंत्र है।
मणिपुर में सेना को विशेष अधिकार देने केबाद सामाजिक जीवन में शांति नहीं लौटी है,अपराध नहीं घटे हैं। अपराध औरउत्पीड़न का ग्राफ निरंतर बढा है। उत्तर औपनिवेशक समाजों की यह ठोससच्चाई है जितना ज्यादा पुलिस और सैन्यबलों का इस्तेमाल समाज केनियमन के लिए किया गया है उतना ही अराजकता और अव्यवस्था बढ़ी है।उत्तर औपनिवेशिक परिस्थितियों और समस्याओं के समाधान सेना औरपुलिस के हाथ में देने से समस्या और भी उलझी है। उत्तर पूर्व केराज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक और इधर लालगढ में सेना और पुलिस कीजितनी निगरानी और हस्तक्षेप बढा है उससे समाज और भी ज्यादाअनियंत्रित हुआ है।
इस युग में जितनी सेना उतनी ही अराजकता।जितनी पुलिस की निगरानी उतना ही ज्यादा अपराधी हिंसाचार। मणिपुर भी इसफिनोमिना से बचा नहीं है। सरकार ने सेना को विशेष अधिकार समाज कोअनुशासित करने और दंडित करने के लिए दिए हैं लेकिन इसके परिणामउल्टे निकले हैं । उत्तर पूर्व के राज्यों में पहले की तुलना में आजज्यादा अराजकता और असुरक्षा है। जिनके हाथ में सत्ता है वे लोकतंत्र औरआजादी का नाटक कर रहे हैं। मानवाधिकारों के अभाव में उत्तर पूर्व केराज्यों में राष्ट्र-राज्य की पकड़ कमजोर हुई है। राष्ट्र-राज्य कीकमजोरियों को छिपाने के लिए सेना को विशेष अधिकार देने के बहानेकेन्द्र अपना इन राज्यों में वर्चस्व बनाए रखना चाहता है।
आयरनीयह है कि इन इलाकों में भारत सरकार का शासन है लेकिन आम लोगों के साथसरकार का संबंध पूरी तरह कट चुका है। आम लोग भारत में रहते हुए भी उन तमामअधिकारों से अपने को वंचित हैं जो दिल्ली-मुंबई-चेन्नई आदि केनागरिक उपभोग कर रहे हैं। इन राज्यों के नागरिकों का दैनन्दिन अनुभवभारत सरकार और उसके तंत्र के प्रति आस्थाएं कमजोर करता है। भारत सरकार नेअपने इन इलाकों में आतंक का हौव्वा खड़ा किया और बाद में उसके दमन केलिए सेना को विशेषाधिकार देकर दमन चक्र आरंभ कर दिया।
उत्तरपूर्व को लेकर सत्ता का शानदार मीडिया प्रबंधन है ।भारत मेंज्यादातर पत्र-पत्रिकाएं पढने वाले तक इन राज्यों में क्या हो रहाहै,सेना क्या कर रही है, माफिया गिरोह क्या कर रहे हैं, भूमिगत संगठनकैसे अपराधी गतिविधियों में लिप्त हैं,इरोम शर्मीला कौन है और वह किसबात के लिए दस साल से भूख हडताल पर है इत्यादि सवालों के बारे में आमलोग एकदम नहीं जानते। मीडिया में उत्तरपूर्व एकसिरे से गायब है।
मीडिया में केन्द्र के प्रधान राजनीतिक दलों,सैलीब्रेटी ,फिल्मीगाने और क्रिकेट की खबरों के बहाने लोकतंत्र के समूचे सारवान खबरों केसंसार को अपदस्थ कर दिया गया है। मीडिया ने लोकतंत्र और मानवाधिकारोंको क्रिकेट और सैलीब्रेटी के जरिए अपदस्थ कर दिया है। राजनीति में भीमीडिया सिर्फ केन्द्र के प्रधानदल और विपक्ष की राजनीति के सतहीसवालों मशगूल रहता है। उसकी क्षेत्रीय राजनीति खासकर उत्तर पूर्वीराज्यों की राजनीति को एजेंडा बनाने में दिलचस्पी नहीं होती। वहमानवाधिकारहनन के बडे सवालों में निरंतर दिलचस्पी नहीं लेता।
मणिपुर की पुलिस व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि आए दिन थाने मेंबंदी मार दिए जाते हैं अथवा एनकाउंटर करके लोग मार दिए जाते हैं। जो लोगअपराध कर रहे हैं उन्हें पुलिस पकड़ नहीं पाती है इसके विपरीत निर्दोषनागरिक मार दिए जाते हैं। औरतों के साथ बलात्कार की घटनाएं इस दौरान बढीहैं। ह्यूमन राइटस वाच गुप ने मांग की है कि भारत सरकार तुरंत एक्शन ले।क्योंकि मणिपुर मेंसुरक्षाबलों और हथियारबंद गिरोहों के द्वारा रोजर्निदोष लोगों की हत्याएं की जा रही हैं। अपहरण किया जा रहा है। यह भीमांग की है भारत सरकार तुरंत 'सैन्य बल (विशेषाधिकार) कानून ' को खत्मकरे। उल्लेखनीय है इस कानून को खत्म करने के बारे में केन्द्र सरकार केद्वारा बिठाई गयी कमेटी सिफारिश सन् 2004 में कर चुकी है। इसके बावजूदकेन्द्र सरकार ने इस जनविरोधी कानून को अभी तक खत्म नहीं किया है।
This article has been written by Dr. Jagdishwar Chaturvedi of Kolkata University.
Also published @
http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02